Sunday, 11 October 2015

एक अजन्मी बेटी का रुदन

माँ
मैं तेरी अजन्मी बेटी
जो कोख में ही मार दी गईं
क्योकि वह इक लड़की थी
जिस के लिए तू बहुत रोई,बहुत तड़फ़ी
आज तेरे साथ 
तेरा दुःख बाँटने आई हूँ
माँ
पहिले मैं भी बहुत रोई थी
तड़फ़ी थी,कुरलाई थी 
कि मुझे जन्म से पहिले ही मार दिया गया 
मेरा अस्तित्व बनने से पहिले ही उखाड़ दिया गया
मैंने तो माँ बाप के साथ दुःख बाँटने थे
भाई की कलाई पर राखी सजानी थी
पर ऐसा हो न सका
माँ बाप के दुःख बटने से रह गए
भाई की कलाई सूनी ही रह गईं

पर फिर ,सोचते सोचते
मैंने देखा अपना बीता कल
एक बेटी, एक लड़की का बीता कल
जन्मों जन्मों से
यही होता आया है
कभी दाई ने नाक बंद करके
कभी राख की चुटकी के साथ
कभी गला दबा कर और कभी अफीम देकर
मुझे मारा गया
ये तो कृपा है विज्ञान की
कि अब मैं
नौ माह की जगह 
चार माह ही माँ की कोख में रहती हूँ

माँ
जरा सोचो
अगर तुम मुझे जन्म दे भी देती
तो क्या होता
इस समाज में
इस पीड़ित समाज में
जीना आसां नहीं
जन्म से लेकर बुढ़ापे तक
हर कदम, हर पल
औरत होने का एहसास कराया जाता है
जैसे औरत होना कोई पाप हो
कभी रेप
कभी इज्जत पर हमला
कभी बॉस की गन्दी नज़रें
कभी सड़क छाप रोमियो और मजनुओं की  आवाज़ें
ये सब ही तो औरत को
सौगात में दिया जाता है
वोह औरत
जो किसी की मां है,बहिन है
उसे वासना का शिकार बनाया जाता है

इस समाज में
मैं किसी तरह बचती बचाती
बड़ी होती और फिर मेरा विवाह होता
ज़रा सोचो विवाह
 और फिर क्या होता
सास दहेज़ के ताहने देती
और पती
माँ का पल्लू पकड़ कर
एक तरफ खड़ा देखता रहता
हो सकता है मुझे जला दिया जाता
दहेज़ की बलि चढ़ा दिया जाता
नहीं तो 
लड़के की चाह में
मैं भी शायद वही करने को मजबूर की जाती 
जो तुमने किया

नहीं माँ नहीं
मेरे न होने का गम न कर
हिम्मत कर
अगर मैं होती तो 
मैं तेरी कमजोरी होती
अब मेरे लिए
मेरे जैसी अनगिनत अजन्मी बच्चीयों के लिए
बहादुर बन जा
समाज में जागृति पैदा कर
आज के बाद कोई माँ बेटी को 
कोख में मारने को मजबूर न हो
कोई रेपिस्ट खुला न घूमे
कोई बेटी दहेज़ की बलि न चढे
और कोई माँ
अजन्मी बेटी को याद करके
न रोये, न आंसू बहाये।








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